पंचबटीं बर पर्नकुटी तर बैठे हैं रामु सुभायँ सुहाए I
सोहै प्रिया, प्रिय बंधु लसै, 'तुलसी' सब अंग घने छबि-छाए II
देखि मृगा मृगनैनी कहे प्रिय बैन, ते प्रीतमके मन भाए I
हेमकुरंगके संग सरासनु सायकु लै रघुनायकु धाए II
भावार्थ :- पंचवटीमें सुन्दर पर्णकुटीके समीप स्वभावसे ही सुन्दर भगवान श्रीरामचन्द्रजी बैठे हैं I (साथमें) प्रिया (श्रीसीताजी) और प्रिय बन्धु (श्रीलक्ष्मणजी) शोभित हैं I गोसाईं श्रीतुलसीदासजी कहते हैं- उनके सब अंग बड़े ही शोभायमान हैं I उस समय एक (स्वर्ण) मृगको देखकर मृगनयनी (श्रीमिथिलाकुमारी)- ने (उसे लानेके लिये) जो प्रिय वचन कहे, वे प्रियतम (श्रीराम)- के मनको बहुत प्रिय लगे, तब श्रीरघुनाथजी धनुष-बाण ले उस सोनेके मृगके पीछे दौड़ पड़े I
सोहै प्रिया, प्रिय बंधु लसै, 'तुलसी' सब अंग घने छबि-छाए II
देखि मृगा मृगनैनी कहे प्रिय बैन, ते प्रीतमके मन भाए I
हेमकुरंगके संग सरासनु सायकु लै रघुनायकु धाए II
भावार्थ :- पंचवटीमें सुन्दर पर्णकुटीके समीप स्वभावसे ही सुन्दर भगवान श्रीरामचन्द्रजी बैठे हैं I (साथमें) प्रिया (श्रीसीताजी) और प्रिय बन्धु (श्रीलक्ष्मणजी) शोभित हैं I गोसाईं श्रीतुलसीदासजी कहते हैं- उनके सब अंग बड़े ही शोभायमान हैं I उस समय एक (स्वर्ण) मृगको देखकर मृगनयनी (श्रीमिथिलाकुमारी)- ने (उसे लानेके लिये) जो प्रिय वचन कहे, वे प्रियतम (श्रीराम)- के मनको बहुत प्रिय लगे, तब श्रीरघुनाथजी धनुष-बाण ले उस सोनेके मृगके पीछे दौड़ पड़े I
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